क्यों नहीं मिलती SC/ST समुदाय को न्यायपालिका में हिस्सेदारी? जानिए वजह
भारत की न्यायपालिका में जजों की नियुक्ति को लेकर आरक्षण की मांग लगातार उठती रही है। हाई कोर्ट में 357 पद खाली हैं, लेकिन इसमें SC/ST समुदाय के लोगों का प्रतिनिधित्व नगण्य है। सवाल यह उठता है कि जब देश की अन्य सेवाओं में आरक्षण लागू है, तो न्यायपालिका इससे अछूती क्यों है? क्या न्यायपालिका में भी सामाजिक न्याय की जरूरत है, या फिर योग्यता को ही प्राथमिकता दी जानी चाहिए?
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भारत की न्यायपालिका देश की सबसे महत्वपूर्ण संस्थाओं में से एक है, जो कानून और संविधान की रक्षा के लिए जिम्मेदार है। लेकिन क्या यह न्यायपालिका वास्तव में समाज के सभी वर्गों का प्रतिनिधित्व करती है? हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में जजों की नियुक्ति की प्रक्रिया पर अक्सर सवाल उठते हैं, खासकर जब बात अनुसूचित जाति (SC) और अनुसूचित जनजाति (ST) समुदायों के प्रतिनिधित्व की होती है।
हाई कोर्ट में खाली पड़े जजों के पद
भारत के हाई कोर्ट में कुल 357 जजों के पद खाली पड़े हैं, जो कि लगभग 32% रिक्तियों को दर्शाते हैं। यह न केवल न्याय प्रक्रिया में देरी की वजह बन रहा है, बल्कि यह भी सवाल उठता है कि क्या इन रिक्तियों को भरने की प्रक्रिया में सामाजिक न्याय का ध्यान रखा जा रहा है?
अगर हम आंकड़ों पर नजर डालें तो हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में SC/ST समुदाय से आने वाले जजों की संख्या बेहद कम है। 2021 तक, सुप्रीम कोर्ट में सिर्फ दो ही SC/ST जज थे, जबकि हाई कोर्ट में इनकी संख्या नाममात्र थी।
क्या भारतीय न्यायपालिका में आरक्षण का प्रावधान है?
संविधान के तहत संसद, विधानसभाओं, सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में आरक्षण का प्रावधान है। लेकिन, यह आरक्षण न्यायपालिका में लागू नहीं होता। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 124 और 217 के तहत जजों की नियुक्ति में योग्यता, अनुभव और वरिष्ठता को प्राथमिकता दी जाती है, न कि जाति आधारित आरक्षण को। इसका मुख्य कारण यह बताया जाता है कि न्यायपालिका को पूरी तरह से स्वतंत्र और निष्पक्ष रहना चाहिए। हालांकि, यह तर्क उठाया जाता है कि जब अन्य सरकारी सेवाओं में सामाजिक न्याय के तहत आरक्षण दिया जा सकता है, तो न्यायपालिका में क्यों नहीं? क्या न्यायपालिका केवल उच्च वर्गों के लिए ही आरक्षित है?
ऐसे में एक सवाल यह भी उठता है कि न्यायपालिका में SC/ST समुदायों का कम प्रतिनिधित्व क्यों है? तो आपको बता दें कि भारत में जजों की नियुक्ति कोलेजियम सिस्टम के तहत होती है, जिसमें सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठतम जज निर्णय लेते हैं कि कौन जज बनेगा। यह प्रणाली पूरी तरह से अपारदर्शी मानी जाती है और इसमें सामाजिक समावेश का ध्यान नहीं रखा जाता। भारत में लॉ फर्म, अदालतें और न्यायपालिका लंबे समय से उच्च जातियों के वर्चस्व में रही हैं। कई SC/ST उम्मीदवारों को इस क्षेत्र में करियर बनाने के लिए समान अवसर नहीं मिलते।
अक्सर यह तर्क दिया जाता है कि SC/ST समुदायों से आने वाले प्रतिभाशाली उम्मीदवारों की संख्या कम होती है। लेकिन सच्चाई यह है कि कई होनहार उम्मीदवारों को उचित अवसर और संसाधन नहीं मिलते, जिससे वे इस पेशे में आगे नहीं बढ़ पाते।
दूसरे देशों में न्यायपालिका में आरक्षण का क्या मॉडल है?
अमेरिका और दक्षिण अफ्रीका जैसे देशों में न्यायपालिका में विविधता बढ़ाने के लिए विशेष कदम उठाए गए हैं। अमेरिका में एफर्मेटिव एक्शन (Affirmative Action) नीतियों के तहत अल्पसंख्यकों को विशेष अवसर दिए जाते हैं। दक्षिण अफ्रीका ने अपनी न्यायपालिका में नस्लीय विविधता सुनिश्चित करने के लिए विशेष कार्यक्रम शुरू किए हैं।
क्या भारत में न्यायपालिका में आरक्षण संभव है?
अगर न्यायपालिका में आरक्षण लागू करना है, तो इसके लिए संविधान में संशोधन करना होगा। यह एक जटिल प्रक्रिया है, लेकिन असंभव नहीं। न्यायपालिका में SC/ST समुदायों की भागीदारी बढ़ाने के लिए कोलेजियम सिस्टम को पारदर्शी बनाना जरूरी है। SC/ST समुदाय के लॉ ग्रेजुएट्स को बेहतर अवसर और स्कॉलरशिप दी जाए। लॉ स्कूलों में SC/ST छात्रों के लिए स्पेशल ट्रेनिंग और मेंटरशिप प्रोग्राम चलाए जाएं। जजों की नियुक्ति में सामाजिक समावेश को बढ़ावा देने के लिए सरकार विशेष नीति बनाए।
न्यायपालिका को समाज का आईना कहा जाता है, लेकिन जब उसमें सभी वर्गों का प्रतिनिधित्व नहीं होता, तो यह न्याय और समावेशिता के सिद्धांतों के खिलाफ जाता है। अगर भारत को वास्तव में न्यायिक सुधार की दिशा में आगे बढ़ना है, तो यह जरूरी है कि SC/ST समुदायों को भी न्यायपालिका में समान अवसर मिले। इससे न केवल न्याय व्यवस्था मजबूत होगी, बल्कि जनता का विश्वास भी बढ़ेगा। अब सवाल यह है कि क्या सरकार और न्यायपालिका इस दिशा में कोई ठोस कदम उठाएंगे?
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