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क्या भारत में पीरियड लीव का कानून बदलेगा? जानें अभी के नियम और नई संभावनाएं

भारत में पीरियड लीव को लेकर अभी कोई राष्ट्रीय कानून नहीं है, लेकिन कुछ राज्यों और कंपनियों ने अपने स्तर पर इसे लागू किया है। अब चर्चा हो रही है कि क्या सरकार इस पर कोई नया कानून लाने जा रही है। राजस्थान हाईकोर्ट के एक अहम फैसले के बाद पीरियड लीव को लेकर देशभर में बहस छिड़ गई है। इस ब्लॉग में हम जानेंगे कि मौजूदा नियम क्या हैं, किन राज्यों में यह सुविधा उपलब्ध है और क्या केंद्र सरकार इसे पूरे देश में लागू करने की योजना बना रही है।

nmf-author
02 Apr 2025
( Updated: 05 Dec 2025
08:39 AM )
क्या भारत में पीरियड लीव का कानून बदलेगा? जानें अभी के नियम और नई संभावनाएं
भारत में महिलाओं के अधिकार और उनके कार्यस्थल पर सुविधाओं को लेकर हमेशा से चर्चा होती रही है। खासतौर पर, पीरियड लीव को लेकर बहस समय-समय पर तूल पकड़ती रही है। महिलाओं के मासिक धर्म से जुड़ी समस्याओं को देखते हुए, यह सवाल लगातार उठता है कि क्या सरकार इसे कानूनी रूप से अनिवार्य करने की योजना बना रही है? क्या कार्यस्थलों पर महिलाओं को यह विशेष सुविधा दी जानी चाहिए? और अगर दी जाती है तो इसके क्या फायदे और नुकसान होंगे? आइए इस विषय को गहराई से समझते हैं।

भारत में मौजूदा पीरियड लीव की स्थिति

भारत में अभी तक पीरियड लीव को लेकर कोई राष्ट्रीय स्तर का कानून नहीं है, लेकिन कुछ राज्य सरकारों और निजी कंपनियों ने अपने स्तर पर इसे लागू किया है। सबसे पहले बिहार सरकार ने 1992 में अपनी महिला कर्मचारियों को दो दिन का विशेष मासिक धर्म अवकाश देने की शुरुआत की थी। इसके बाद, केरल सरकार ने भी कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में पढ़ रही छात्राओं के लिए पीरियड लीव का प्रावधान किया।

वहीं, कई निजी कंपनियां भी अपने कर्मचारियों को इस सुविधा का लाभ दे रही हैं। 2020 में Zomato ने अपनी महिला और ट्रांसजेंडर कर्मचारियों के लिए हर साल 10 दिन की पीरियड लीव की घोषणा की थी। इसी तरह, Byju’s, Swiggy और Culture Machine जैसी कंपनियां भी इस दिशा में कदम उठा चुकी हैं। लेकिन सवाल यह है कि क्या इसे पूरे देश में अनिवार्य किया जाना चाहिए?

सरकार की मौजूदा नीति और कानूनी स्थिति

अभी तक भारत में कोई केंद्रीय कानून पीरियड लीव को अनिवार्य नहीं करता। हालांकि, संसद में इस पर बहस हो चुकी है। 2022 में लोकसभा में ‘मेंस्ट्रुअल लीव बिल’ पेश किया गया था, जिसमें यह प्रस्ताव रखा गया कि सरकारी और निजी क्षेत्र की महिला कर्मचारियों को हर महीने दो दिन की पीरियड लीव दी जानी चाहिए। लेकिन इस बिल को खारिज कर दिया गया।

सरकार ने इस बिल को यह कहकर नकार दिया कि यदि इसे अनिवार्य किया जाता है, तो महिलाओं की नौकरी के अवसरों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है। कई विशेषज्ञों का मानना है कि इससे कंपनियां महिलाओं को भर्ती करने से बच सकती हैं, जिससे लैंगिक असमानता और बढ़ सकती है।

क्या कहता है सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट?

हाल ही में राजस्थान हाईकोर्ट ने एक अहम फैसला सुनाया है, जिसमें कहा गया कि किसी भी कर्मचारी के सर्विस पीरियड में रविवार और सवेतन छुट्टियों को शामिल करते हुए उसके कार्य दिवसों की गणना की जाएगी। यह फैसला लालचंद जिंदल बनाम बैंक ऑफ बड़ौदा मामले में आया था, जहां बैंक ने अंतिम कार्य वर्ष में उनके कार्य दिवसों की गणना 227 दिनों की बताकर उन्हें नौकरी से निकाल दिया था।

हाईकोर्ट ने लेबर कोर्ट के आदेश को रद्द कर दिया और कहा कि रविवार और अन्य सवेतन छुट्टियों को कार्यदिवसों में गिना जाना चाहिए। यह फैसला स्पष्ट करता है कि छुट्टियों को लेकर न्यायिक प्रक्रिया में एक नई सोच उभर रही है, जिससे भविष्य में पीरियड लीव जैसे मुद्दों को भी मजबूती मिल सकती है।

दुनिया के अन्य देशों में पीरियड लीव का क्या प्रावधान है?
कई देशों में पहले से ही पीरियड लीव का प्रावधान मौजूद है। जापान में 1947 से महिलाओं को पीरियड लीव लेने की सुविधा है। वही दक्षिण कोरिया में महिलाओं को हर महीने एक दिन की सवेतन छुट्टी दी जाती है। इंडोनेशिया की बात करें तो यहां महिलाओं को पहले दो दिन की सवेतन पीरियड लीव मिलती थी, हालांकि अब यह नीति बदल रही है। स्पेन यूरोप का पहला देश जिसने 2023 में पीरियड लीव को कानूनी मान्यता दी। भारत में भी इस तरह की नीति लागू करने पर विचार किया जा सकता है, लेकिन इसके लिए सरकार को कई सामाजिक और आर्थिक पहलुओं को ध्यान में रखना होगा।

क्या पीरियड लीव अनिवार्य होनी चाहिए? 

कई महिलाओं को पीरियड्स के दौरान गंभीर दर्द (Dysmenorrhea) होता है, जिससे काम करना मुश्किल हो जाता है। पुरुषों और महिलाओं के लिए अलग-अलग जैविक आवश्यकताएं होती हैं, इसलिए महिलाओं को विशेष सुविधाएं मिलनी चाहिए। यदि महिलाओं को जरूरत के समय छुट्टी मिलती है, तो वे बाकी दिनों में अधिक ऊर्जा और ध्यान के साथ काम कर सकती हैं। वही कुछ लोगों का मानना है कि अगर ऐसा होता है तो कंपनियां महिलाओं को भर्ती करने से बच सकती हैं, जिससे लैंगिक असमानता बढ़ेगी। कुछ लोग इसे महिलाओं के लिए एक अतिरिक्त लाभ के रूप में देखते हैं, जो समानता के सिद्धांत के खिलाफ हो सकता है। यदि पीरियड लीव को अनिवार्य किया जाता है, तो इसका गलत उपयोग भी हो सकता है।

सरकार की ओर से अभी तक कोई आधिकारिक घोषणा नहीं हुई है, लेकिन यह साफ है कि इस मुद्दे पर बहस और तेज होगी। संसद में इस विषय पर चर्चा हो सकती है और अगर महिलाओं के अधिकारों की मांग को लेकर दबाव बढ़ता है, तो सरकार को इस पर कोई ठोस कदम उठाना पड़ सकता है।

हालांकि, सरकार को इस मुद्दे पर संतुलित दृष्टिकोण अपनाने की जरूरत होगी। सिर्फ पीरियड लीव देने से समस्या हल नहीं होगी, बल्कि कार्यस्थलों को महिलाओं के लिए अधिक अनुकूल बनाने की दिशा में अन्य कदम भी उठाने होंगे। जैसे कि अच्छे सैनिटरी सुविधाओं का निर्माण, लचीले कार्य घंटे और जागरूकता कार्यक्रमों का आयोजन।

पीरियड लीव पर कानून बनाना या न बनाना, यह बहस का विषय है। एक ओर महिलाओं के स्वास्थ्य और काम करने की परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए इसकी आवश्यकता महसूस की जा रही है, वहीं दूसरी ओर यह चिंता भी है कि कहीं इससे महिलाओं के नौकरी के अवसर प्रभावित न हों। सरकार के लिए यह संतुलन बनाना एक चुनौती होगी। क्या भारत भी जापान और स्पेन की तरह इस दिशा में कदम बढ़ाएगा, या फिर यह मुद्दा केवल चर्चा तक ही सीमित रहेगा? यह तो आने वाला समय ही बताएगा।

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