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रतन टाटा का निधन: जानिए क्यों नहीं होगा पारसी दोखमेनाशिनी परंपरा का पालन?

Ratan Tata: रतन टाटा, टाटा समूह के पूर्व चेयरमैन और उद्योग जगत के दिग्गज, का 9 अक्टूबर 2024 को निधन हो गया। उनकी अंतिम यात्रा पारसी रीति-रिवाज के अनुसार वर्ली के श्मशान घाट में की जाएगी, लेकिन इसमें पारसी दोखमेनाशिनी परंपरा का पालन नहीं किया जाएगा।

10 Oct, 2024
( Updated: 10 Oct, 2024
07:01 PM )
रतन टाटा का निधन: जानिए क्यों नहीं होगा पारसी दोखमेनाशिनी परंपरा का पालन?
Ratan Tata: भारत के महान उद्योगपति रतन टाटा का निधन 9 अक्टूबर को मुंबई के ब्रीच कैंडी अस्पताल में हुआ। 86 वर्ष की उम्र में उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कह दिया। उनकी मृत्यु के बाद न सिर्फ कारोबारी जगत बल्कि आम जनमानस में भी शोक की लहर है। पारसी समुदाय से संबंध रखने वाले रतन टाटा का अंतिम संस्कार पूरी पारसी रीति-रिवाज से होने वाला है, लेकिन पारंपरिक दोखमेनाशिनी परंपरा का पालन इस बार नहीं किया जाएगा। यह परंपरा पारसियों की विशेष अंतिम संस्कार प्रक्रिया है, लेकिन बदलते समय के साथ इसे कई लोग नहीं अपना रहे हैं।

अब सवाल उठता है कि दोखमेनाशिनी परंपरा क्या है और क्यों रतन टाटा का अंतिम संस्कार इसके विपरीत हो रहा है? इससे जुड़ी गहन जानकारी और पारसी समाज की इस अद्भुत प्रथा के बारे में जानना आपके लिए दिलचस्प और रहस्यमयी हो सकता है। चलिए, विस्तार से जानते हैं कि इस परंपरा के पीछे का क्या धार्मिक और सामाजिक महत्व है, और क्यों इसे अब कम पारसी परिवार अपना रहे हैं।

दोखमेनाशिनी परंपरा: 3 हजार साल पुरानी अनोखी प्रथा

पारसी समुदाय में मृत्यु के बाद शव को जलाना या दफनाने की परंपरा नहीं होती है। इसके स्थान पर, शव को "दोख्मा" या टावर ऑफ साइलेंस पर रखा जाता है, जहां मांसाहारी पक्षी, विशेषकर चीलें, शव को खा जाती हैं। इस परंपरा के पीछे पारसियों का मानना है कि पृथ्वी, अग्नि, और जल को अशुद्ध नहीं किया जाना चाहिए। शवों को सीधे जमीन या अग्नि में दफनाना या जलाना उनके धार्मिक सिद्धांतों के खिलाफ माना जाता है, क्योंकि शव को अशुद्ध माना जाता है।

दोखमेनाशिनी एक ऐसी परंपरा है, जहां शव को सूर्य और चीलों के हवाले किया जाता है ताकि प्रकृति की प्रक्रिया से उसे शुद्ध किया जा सके। इसे एक तीन हजार साल पुरानी परंपरा के रूप में देखा जाता है, जिसका पालन पारसी समाज ने सदियों से किया है। "दोख्मा" एक ऊंची गोलाकार इमारत होती है, जिसे 'टावर ऑफ साइलेंस' कहा जाता है, और यहां शवों को रखने की प्रक्रिया की जाती है। इस परंपरा को 'शांति और शुद्धता' के प्रतीक के रूप में देखा जाता है।

क्यों नहीं होगा रतन टाटा का अंतिम संस्कार दोखमेनाशिनी परंपरा से?

रतन टाटा के अंतिम संस्कार में इस पारंपरिक परंपरा का पालन न करने का निर्णय लिया गया है। इसके पीछे कई कारण हो सकते हैं। आधुनिक समय में, मुंबई जैसे शहरों में टावर ऑफ साइलेंस का उपयोग काफी कम हो गया है। शहर में रहने वाले पारसी परिवार अब इस प्रक्रिया को पूरी तरह से नहीं अपना पा रहे हैं, क्योंकि जनसंख्या वृद्धि और शहरों के बदलते स्वरूप के चलते इसके लिए स्थान और सुविधाओं की कमी हो गई है। इसके अलावा, कई परिवार अब शवों को इलेक्ट्रिक दाह संस्कार या अन्य माध्यमों से अंतिम विदाई देना उचित समझते हैं।

आपको बता दें कि रतन टाटा का अंतिम संस्कार मुंबई के वर्ली श्मशान में किया जाएगा, जहां उनके पार्थिव शरीर को पहले प्रेयर हॉल में रखा जाएगा। इस हॉल में पारसी रीति से 'गेह-सारनू' नामक प्रार्थना की जाएगी और 'अहनावेति' का पाठ किया जाएगा। इसके बाद, उनका अंतिम संस्कार इलेक्ट्रिक अग्निदाह के माध्यम से होगा। समय के साथ पारसी समाज की परंपराओं में भी बदलाव आया है। कई परिवार अब पारंपरिक दोखमेनाशिनी के बजाय इलेक्ट्रिक दाह संस्कार या अन्य माध्यमों से शवों का अंतिम संस्कार कर रहे हैं।

रतन टाटा के मामले में भी पारिवारिक निर्णय के तहत उनका अंतिम संस्कार इलेक्ट्रिक दाह संस्कार से करने का फैसला लिया गया है। यह एक आधुनिक और समय के साथ बदलते रिवाजों का उदाहरण है, जो अब पारसी समाज में भी स्वीकार्य होते जा रहे हैं।

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